बीते दिन
जिन गलियों में आते जाते रोज रहे ,
उन गलियों में गए कई दिन गुजर गये
जो सपने दिन रात आँख में बसते थे,
टूट टूट कर चूर हुए और बिखर गए
ऐसी आंधी चली , समय का रुख बदला,
बादल गरजे ,बिन मौसम बरसात हुई
ऐसी ओलावृष्टि हुई अचानक ही ,
खड़ी फसल पकने को थी,बरबाद हुई
फेर समय का था या किस्मत खोटी थी,
नीड बसे ही ना थे,लेकिन उजड़ गए
जो सपने दिन रात आँख में बसते थे ,
टूट टूट कर चूर हुए और बिखर गए
ऐसा ना था भूल गए थे हम रस्ता ,
ऐसा ना था ,थी मंज़िल की चाह नहीं
पर शायद हिम्मत ही कम थी पावों में ,
पहले जैसा था मन में उत्साह नहीं
कभी चाँद पाने का मन में जज्बा था ,
पर वो जोश ,जवानी, जाने किधर गए
जो सपने दिन रात आँख में बसते थे,
टूट टूट कर चूर हुए और बिखर गए
हम उम्मीद लगा ये सोचा करते थे ,
कभी हमारे भी आएंगे अच्छे दिन
और बुढ़ापे में ये याद किया करते ,
हाय जवानी में थे कितने अच्छे दिन
कल के चक्कर में घनचक्कर बने रहे ,
न तो इधर के रहे और ना उधर गए
जो सपने दिन रात आँख में बसते थे,
टूट टूट कर चूर हुए और बिखर गए
मदन मोहन बाहेती'घोटू'
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