Wednesday, May 28, 2014

मज़ा -छतों का

   मज़ा  -छतों का

हमें है याद आती 'घोटू'रातें गर्मियों की वो,
छतों पर लोग सोते थे,छतें गुलजार रहती थी
चांदनी रात में हर छत पे जब चन्दा चमकता था,
थपकियाँ दे सुलाती थी,हवाएँ मस्त बहती थी
धूप में सर्दियों की ,छतों पर चौपाल जमती थी ,
कभी बड़ियाँ ,कभी पापड कभी आचार बनते थे
टूटते व्रत थे करके चन्द्र दर्शन ,छतों पर जाकर ,
जब करवा चौथ के और तीज के त्यौहार मनते थे
अकेले,चुपके चुपके ,छत पे जाकर ,मज़ा मिलने का,
याद अब  जब भी आता ,मुंह में मिश्री घोल देता है
पड़ोसी की छतों पर ताकने  का,झाँकने का  सुख,
राज़ कितने ही अनजाने ,अचानक खोल देता है
पड़ोसन अपनी गीली जुल्फों से ,मोती छिटकती थी,
सवेरे ही सवेरे ये बड़ा उपहार होती  था
हमें जब कनखियों से ,अपने छत से ,देखती थी वो,
हमारे तन और मन में   गुदगुदी हर बार होती थी
मगर अब फ्लेट है  कितने, इमारत कितने मंज़िल की,
अकेली रह गयी उन पर ,बिचारी छत ,तरक्की में
अब तो बस लोग अपने घरों में ही दुबके रहते है ,
लिया है छीन हमसे छतों का सुख,इस तरक्की ने

मदन मोहन बाहेती'घोटू'

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