Wednesday, September 24, 2014

          शरारती कविता (A )

एक दिन उनकी ब्रा का हुक ,मेरे बनियान से बोला ,
               कहा ,होते बड़े ही बेरहम ये हुस्नवाले है
सुबह से शाम तक हम करते है मेहनत कुली जैसे,
        बोझ उनकी जवानी का ,सदा रहते संभाले है
कभी उनके उभारों को,ढलकने हम नहीं देते ,
       तभी जलवा जवानी का,लोग  सब देख लेते  है
नज़र है सबकी ललचाती ,उन्हें पाने को है लेकिन,
      मिलन की घड़ियों में हमको,खोल कर फेंक देते है
गुफ्तगू ,सुन रहा था उनके पेटीकोट का नाड़ा ,
       कहा भैया है जो भी तुम,बड़े तक़दीरवाले  हो
सदा चिपके तो रहते हो,बदन पे उनके नाजुक से ,
       तरसते लोग छूने को ,और तुम रहते सम्भाले हो
हमारी ओर देखो क्या ,तुम्हे बदमाश दिखते हम,
      हमें जो बाँध कर के सारा दिन ही है रखा  जाता
कमर के नीचे या ऊपर ,न जाने की इजाजत है,
      मिलन में,खोल कर के फेंक हमको है दिया जाता 
रात दिन करते पहरेदारी उनकी लाज की हम है ,
       बुरी नज़रों से दुनिया की ,उन्हें महफूज है  रखते
 भला दुनिया में हम से बढ़,कौन सा होगा  बदकिस्मत,
      मज़ा ले लेती है दुनिया ,मगर हम छू नहीं सकते

घोटू
    

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