अजनबी शहर ,बड़ा भव्य ,बड़ा सुंदर हो,
एक दो दिन का भ्रमण ,ठीक भला लगता है
घूमलो ,फिरलो ,इधर उधर मस्तियाँ करलो ,
मगर सुकून तो घर पर ही मिला करता है
कितना ही गुदगुदा बिस्तर हो किसी होटल का,
चैन की नींद ,घर की खटिया पर ही आती है
रसीले व्यंजनों को देख कर क्या ललचाना ,
भूख तो, दाल रोटी घर की ही मिटाती है
भले ही खुशबू भरा और खूबसूरत है ,
मगर गुलाब वो औरों का है,मत ललचाओ
तुम्हारे घर में जो जूही की कली मुस्काती,
उसी की खुशबू से ,जीवन को अपने महकाओ
पड़ोसी घर में भले लाख झाड़ फानूस है
,हजारों शमाओं से जगमगाता आंगन है
आपके टिमटिमाते दीये की बदौलत ही ,
आपकी झोपड़ी ,छोटी सी रहती ,रोशन है
देख लो लाख गोरी गोरी मेमों के जलवे,
काम में आती मगर ,आपकी ही बीबी है
तुम्हारे घर की वो ही खुशियां और रौनक है ,
तुम्हारी खैरख्वाह है और खुशनसीबी है
मदन मोहन बाहेती'घोटू'
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