क्या ये उमर का असर है
मुझे याद आते है वो दिन
जब कभी कभी तुम
होटल में खाने की करती थी फरमाइश
और मेरे बजट में ,नहीं होती थी गुंजाईश
तो मैं कुछ न कुछ बहाना बना
कर देता था मना
क्योंकि उस एक दिन की आउटिंग में ,
मेरा महीने भर का बजट हो जाता बर्बाद
और हम लौकी की सब्जी में ही ,
ढूँढा करते थे ,मटर पनीर का स्वाद
और आज जब मैं इतना सम्पन्न हूँ
कि तुम्हे हर रोज ,
पांच सितारा होटल में करा सकता हूँ भोज
जब तुम्हे बाहर खाने को करता हूँ ऑफर
तो तुम देख कर अपना मोटा होता हुआ फिगर
या फिर डाइबिटीज से डर ,
बाहर खाने के लिए मना कर देती हो
और खाने में ,लौकी की सब्जी ,
बना कर देती हो
वो ही लौकी तब भी थी ,
और वो ही लौकी अब है
पर उनको खाने की वजहें अलग है
दोनों में कितना अंतर् है
क्या ये उमर का असर है?
मुझे याद आते है वो दिन ,
जब मैं देख कर कोई औरत हसीन
अगर गलती से उसकी खूबसूरती की ,
तारीफ़ कर देता था जो एक भी दफा
तुम जल भुन कर हो जाती थी खफा
बुरी तरह रूठ जाया करती थी
दो दिन तक बात नहीं करती थी
और आज मैं अगर किसी औरत की
खूबसूरती की तारीफ़ देता हूँ कर
तुम कह देती हो मुस्करा कर
जाओ,चले जाओ उसीके पास
कोई भी तुम्हे नहीं डालेगी घास
घूम फिर कर फिर मेरे पास ही आना होगा
मैं जैसी भी हूँ,उसी से काम चलाना होगा
तुम भी वो ही हो ,मैं भी वही हूँ,
पर नज़रिये में आ गया कितना अंतर है
क्या ये उमर का असर है?
मुझे याद आते है वो दिन ,
जब मैं कभी तुमसे प्यार की मनुहार करता था ,
तुम नज़रें झुका ,ना ना कहती थी
और फिर चुपचाप,यमुना की तरह ,
मेरी गंगा में मिल कर ,साथ साथ बहती थी
और आज ,जब मै कभी कभी ,
करता हूँ प्यार की पहल
तुम लेती हो करवट बदल
तुम्हारे व्यवहार में आगयी इतनी प्रतिकूलता है
चुंबन लेने में भी ,तुम्हारा सांस फूलता है
आज भी मेरे प्यार के आव्हान पर ,
तुम्हारा उत्तर ना ना होता है
कभी कमर दर्द तो कभी सर दर्द का,
बहाना होता है
तुम्हारी तबकी ना ना में ,
और अब की ना ना में ,आ गया कितना अंतर् है
क्या ये उमर का असर है?
मदन मोहन बाहेती'घोटू'
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