कबड्डी का खेल-हमारा मेल
तुमने खूब कब्बडी खेली ,
हूँ तू तू कहते तुम मेरे पाले में आये
इसको छुवा,उसको छुवा ,
लेकिन मुझको हाथ लगा भी तुम ना पाए
वो मैं ही थी कि जिसने आगे बढ़ कर
रोक लिया था तुम्हे तुम्हारा हाथ पकड़ कर
और मेरे जिन हाथों को तुम कहते कोमल
उन हाथों ने रखा देर तक तुम्हे जकड़ कर
हुआ तुम्हारा हू तू कहना बंद,
और तुम आउट होकर हार गए थे
लेकिन तुमने जीत लिया था मेरे दिल को ,
और तुम बाजी मार गए थे
पर मैं जीती और तुम हारे
स्वर्ण पदक सी वरमाला बन ,
लटक गयी मैं गले तुम्हारे
तब से अब तक ,मेरे डीयर
घर से दफ्तर ,दफ्तर से घर
रोज कबड्डी करते हो तुम
और मैं घर में बैठी गुमसुम
रहती हूँ इस इन्तजार में
वही पुराना जोश लिए तुम डूब प्यार में
हूँ तू करते कब आओगे ,
और मैं कब पकड़ूँगी तुमको
अपने बाहुपाश में कब जकड़ूँगी तुमको
पर तुम इतने पस्त थके से अब आते हो
खाना खाते ,सो जाते हो
वह चंचल और चुस्त खिलाडी फुर्तीला सा
कहाँ खो गया ,रोज पड़ा रहता ढीला सा
जी करता बाहों में लेलो
फिर से कभी कबड्डी खेलो
घोटू
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