जाने कहां गए वो दिन
जब भी मुझे याद है आते
वह भी क्या दिन थे मदमाते
जिसे जवानी हम कहते थे
नहीं किसी का डर चिंता थी
एक दूजे के साथ प्यार में
बस हम तुम डूबे रहते थे
इतना बेसुध मेरे प्यार में
रहती कई बार सब्जी में
नमक नहीं या मिर्ची ज्यादा
फिर भी खाता बड़े चाव से
उंगली चाट तारीफें करता
मैं दीवाना ,सीधा-सादा
देख तुम्हारी सुंदरता को
सिकती हुई तवे की रोटी
भी ईर्षा से थी जल जाती
तुमसे पल भर की जुदाई भी
मुझको सहन नहीं होती थी
इतना तुम मुझको तड़फाती
जब तुम्हारे एक इशारे
पर मैं काम छोड़कर सारे
पागल सा नाचा करता था
तुम्हारे मद भरे नैन के
ऊपर की भृकुटि न जाए तन
मैं तुमसे इतना डरता था
जब तुम्हारे लगे लिपस्टिक
होठों का चुंबन मिलता था
मेरे होठ नहीं फटते थे
ना रिमोट टीवी का बल्कि
तुमको हाथों में लेकर के
तब दिन रात मेरे कटते थे
जब मैं सिर्फ तुम्हारी नाजुक
उंगली को था अगर पकड़ता
पोंची तुम देती थी पकड़ा
आते जाते जानबूझकर
मुझे सताने या तड़पाने
तुम मुझसे जाती थी टकरा
मैं था एक गोलगप्पा खाली
तुमने खट्टा मीठा पानी
बनकर मुंह का स्वाद बढ़ाया
बना जलेबी गरम प्यार की
डुबा चाशनी सी बातों में
तुमने मुझे बहुत ललचाया
कला जलेबी की तुम सीखी
बना जलेबी मेरी जब तब,
आज हो गई हो पारंगत
लच्छेदार हुई रबड़ी सी
मूंग दाल के हलवे जैसी
बदल गई तुम्हारी रंगत
खरबूजे पर गिरे छुरी या
गिरे छुरी ऊपर खरबूजा
कटता तो खरबूजा ही था
साथ उम्र के बदली दुनिया
किंतु सिलसिला यह कटने का
कायम अब भी,पहले भी था
मदन मोहन बाहेती घोटू
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