ढलता तन,चंचल मन
तन बूढ़ा हो गया आ गई ,अंग अंग में ढील है लेकिन मन का कोना कोना ,चंचल है गतिशील है
हाथ पांव कृषकाय हुए पर मन अभी जोशीला है
तन में फुर्ती नहीं रही पर अंतर मन फुर्तीला है
अब भी ख्याल जवानी वाले मस्तक में मंडराते हैं
हालांकि थोड़ी सी मेहनत, करते तो थक जाते हैं
चार कदम ना चलता तन ,मन चले सैकड़ों मील है
लेकिन मन का कोना कोना ,चंचल है गतिशील है
तन तो अब ना युवा रहा पर मन यौवन से भरा हुआ
तन बूढ़ा हो गया मगर मन,ना बूढ़ा है जरा हुआ
इसका कारण मैं गांव में पला बढ़ा और रहता हूं
नहीं संकुचित शहरों सा उन्मुक्त पवन सा बहता हूं
हैआध्यात्म बसा नसनस में और संस्कार सुशीलहै
लेकिन मन का कोना कोना चंचल है गतिशील है
शुद्ध हवा में सांसे लेता और शीतल जल पीता हूं
दूर बहुत दुनियादारी से, सादा जीवन जीता हूं
तन पर तो बस नहीं मगर मन पर तो है बस चल जाता
जैसा हो परिवेश उस तरह ही है मानस ढल जाता
बहुत नियंत्रित मेरा जीवन ,जरा न उसमें ढील है
लेकिन मन का कोना कोना चंचल है गतिशील है
मदन मोहन बाहेती घोटू
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