तब और अब
पहले जब कविता लिखता था
रूप बखान सदा दिखता था
रूप मनोहर ,गौरी तन का
चंदा से सुंदर आनन का
मदमाते उसके यौवन का
बल खाते कमनीय बदन का
हिरनी सी चंचल आंखों का
उसकी भावभंगिमाओं का
हर पंक्ति में रूप प्रशंसा
उसको पा लेने की मंशा
मन में रूप पान अभिलाषा
रोमांटिक थी मेरी भाषा
मस्ती में डूबे तन मन थे
वे दिन थे मेरे योवन के
रहूं निहारता सुंदरता को,
ध्यान न और कहीं टिकता था
पहले जब कविता लिखता था
अब जब मैं कविता लिखता हूं
कृष काया , बूढ़ा दिखता हूं
बचा जोश ना ,ना उमंग है
बदला जीवन रंग ढंग है
तन और मन सब थका थका है
बीमारी ने घेर रखा है
अब आया जब निकट अंत है
मेरा मन बन गया संत है
याद आते प्रभु हर पंक्ति में
डूबा रहता मन भक्ति में
बड़ी आस्था सब धर्मों में
दान पुण्य और सत्कर्मों में
उम्र बढ़ रही ,बदला चिंतन
पल-पल ईश्वर का आराधन
पुण्य कमा लो इसी भाव में ,
हरदम मैं खोया दिखता हूं
अब जब मैं कविता लिखता हूं
मदन मोहन बाहेती घोटू
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