मेरी जिव्हा, मेरी बैरन
मेरे कितने दोस्त बन गए
मेरे दुश्मन, इसके कारण
मेरी जिव्हा, मेरी बैरन
कहने को तो एक मांस का ,
टुकड़ा है यह बिन हड्डी का
पर जब यह बोला करती है
बहुत बोलती है यह तीखा
जब चलती ,कैची सी चलती
रहता खुद पर नहीं नियंत्रण
मेरी जिव्हा, मेरी बैरन
बत्तीस दातों बीच दबी यह,
रहती है फिर भी स्वतंत्र है
मानव की वाणी ,स्वाद का ,
यही चलाती मूल तंत्र है
मधुर गान या कड़वी बातें,
इस पर नहीं किसी का बंधन
मेरी जिव्हा मेरी बैरन
बड़ी स्वाद की मारी है यह,
लगता कभी चाट का चस्का
और मधुर मिष्ठान देखकर,
ललचाया करता मन इसका
मुंह में पानी भर लाती है,
टपके लार,देख कर व्यंजन
मेरी जिव्हा, मेरी बैरन
यह बेचारी स्वाद की मारी,
करती है षठरस आस्वादन
ठंडी कुल्फी ,गरम जलेबी
सभी मोहते हैं इसका मन
एक जगह रह,बंध खूंटे से
विचरण करती रहती हर क्षण
मेरी जिव्हा, मेरी बैरन
कभी फिसल जाती गलती से ,
कर देती है गुड़ का गोबर
कभी मोह लेती है मन को,
मीठे मीठे बोल, बोल कर
देती गाली, कभी बात कर
चिकनी चुपड़ी, मलती मक्खन
मेरी जिव्हा,मेरी बैरन
मदन मोहन बाहेती घोटू
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