बुझते दीपक
जिनने सदा अंधेरी रातों ,में जल किये उजाले है
इनमें फिर से तेल भरो , ये दीपक बुझने वाले हैं
अंधियारे में सूरज बनकर, जिनने ज्योति फैलाई
सहे हवा के कई थपेड़े ,पर लौ ना बुझने पाई
है छोटे, संघर्षशील पर ,सदा लड़े तूफानों से
इनकी स्वर्णिम छटा ,हमेशा खेली है मुस्कानों से
इनके आगे घबराते हैं ,पंख तिमिर के काले हैं
इनमें फिर से तेल भरो, ये दीपक बुझने वाले हैं
हो पूजन या कोई आरती दीप हमेशा जलते हैं
दिवाली की तमस निशा को, जगमग जगमग करते हैं
शुभ कार्यों में दीप प्रज्वलन होता है मंगलकारी
स्वर्णिम दीप शिखा लहराती ,लगती है कितनी प्यारी
बाती में है भरा प्रेम रस, मुंह पर सदा उजाले हैं
इनमें फिर से तेल भरो ,ये दीपक बुझने वाले हैं
है बुजुर्ग मां-बाप तुम्हारे,ये भी बुझते दिये हैं
किये बहुत उपकार तुम्हारे ,सदा दिये ही दिये हैं
खत्म हो रहा तेल ,उपेक्षा की तो ये बुझ जाएंगे
इनमें भरो प्रेम रस थोड़ा, ये फिर से मुस्कुराएंगे
इनकी साज संभाल करो , ये तुमको बहुत संभाले हैं
इनमें फिर से तेल भरो , ये दीपक बुझने वाले हैं
मदन मोहन बाहेती घोटू
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