Sunday, May 1, 2011

सवेरे सवेरे

        सवेरे सवेरे
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रात के बासीपन की,
भीनी भीनी खुशबू
और सवेरे की ताजगी की
सोंधी सोंधी सुगंध,
उनींदी पलकें,
अनसंवारी अलकें
और अपनी सुघड़ता के प्रति,
अनजानी लापरवाही
आलस भरी अंगड़ाइयों में
उमड़ता हुआ आव्हान,
सुनो,
कहीं चाय का प्याला ,
ढलक न जाए

मदन मोहन बाहेती 'घोटू'

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