Sunday, July 17, 2011

आजन्म कुंवारों के प्रति

आजन्म कुंवारों के प्रति
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चाहते थे जिंदगी की रह में,
           हमसफ़र एक चाँद का टुकड़ा मिले
महक जाए जिंदगी का ये चमन,
            फूल कुछ एसा गमकता सा खिले
 चाहते थे रूपसी यूं मदभरी,
              जिधर से निकले नशीला हो समां
थाम ले दिल देखने वाले सभी,
              इस तरह की हो अनूठी दिलरुबां
पर समय का समीरण सब ले उड़ा,
                स्वप्न यौवन के सुनहरे ,खो गये
रूपसी इसी नहीं कोई मिली,
                प्रतीक्षा में केश रूपा  हो गये

मदन मोहन बहेती 'घोटू'

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