Friday, July 29, 2011

विडंबना

विडंबना
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हमारे संस्कार,
हमें सिखाते है,
प्रकृति की पूजा करना
हम वृक्षों को पूजते है,
वट सावित्री पर वट वृक्ष,
और आंवला नवमी पर,
आंवले के वृक्ष की पूजा करते है
और पीपल  हमारे लिए,
सदा पूजनीय रहा है
हम सुबह शाम,
सूर्य को अर्घ्य देते है
हमारे देश की महिलायें,
चाँद को देख कर  व्रत  तोड़ती है
गंगा,जमुना और सभी नदियाँ,
हमारे लिए इतनी पूजनीय है,
कि इनमे  एक डुबकी लगा कर,
हम जनम जनम के पाप से मुक्त हो जाते है
सरोवर,चाहे पुष्कर हो या अमृतसर,
यहाँ का स्नान,हमारे लिए पुण्यप्रदायक है
मिट्टी  के ढेले को भी,
लक्ष्मी मान,उसकी पूजा करते है
और पत्थर को भी पूज पूज,
भगवान बना देते है
लेकिन हमारी संस्कृति हमें,
'मातृ देवो भव' और 'पितृ देवो भव'
भी सिखाती है,
पर हम पत्थरों के पूजक,
पत्थर दिल बन कर,
अपने जीवित जनकों को,
पत्थरों की तरह,
तिरस्कृत कर रहे है;
कैसी विडम्बना है ?

मदन मोहन बाहेती 'घोटू'

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