Wednesday, December 5, 2012

परछाई

         परछाई
सुबह हुई जब उगा सूरज ,मै  निकला ,मैंने देखा ,
       चली आ रही ,पीछे पीछे ,वो मेरी परछाईं थी
सांझ हुई और सूरज डूबा ,जब छाया अंधियारा तो,
     मैंने पाया ,साथ छोड़ कर ,चली गयी परछाईं थी 
रात पड़े ,जब हुई रौशनी ,सभी दिशा में बल्ब जले,
     मैंने देखा ,एक नहीं,अब चार चार परछाईं थी
मै  तो एक निमित्त मात्र था,सारा खेल रौशनी का,
    जब तक जितनी रही रौशनी ,तब उतनी परछाईं थी

मदन मोहन बाहेती 'घोटू'

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