Friday, March 3, 2017

निकम्मे कबूतर

उठ कर सुबह सुबह जो उड़ते थे दूर तक,
जाते थे रोज रोज ही ,दाना  तलाशने
टोली में दोस्तों की ,विचरते थे हवा में,
रहते है घुसे घर में अब वो आलसी बने
लोगों ने जब से कर दिए ,दाने बिखेरने ,
आंगन में पुण्य वास्ते,लेकर धरम का नाम
तबसे निकम्मे हो गए कितने ही कबूतर ,
चुगते है दाना मुफ्त का ,हर रोज सुबहशाम
दाना चुगा ,मुंडेर पर ,जाकर पसर गए ,
कुछ देर कबूतरनी के संग ,गुटरगूँ किया
जबसे है मुफ्तखोरी का ,चस्का ये लग गया ,
जीने का उनने अपना तरीका बदल दिया
खाते है जहाँ वहीँ पर फैलाते  गन्दगी ,
वो इस तरह के हो गए ,आराम तलब है
तुमने कमाया पुण्य कुछ दाने बिखेर के ,
उनकी नस्ल पे जुल्म मगर ढाया गजब है

घोटू

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