बुढ़ापा -तीन लघु कवितायें
१
ज्यों ज्यों ये उमर आदमी की आगे बढे है
त्यों त्यों ये भूत आशिक़ी का सर पे चढ़े है
हम तो पढ़ा करें है अलिफ़ लैला के किस्से,
बीबी हमारी , गीता,भागवत जी ,पढ़े है
अंकलजी कह के तोड़ देवे दिल वो हमारा ,
जिसकी भी मोहब्बत हमें परवान चढ़े है
दिल फेंकने की आदत ,नहीं हमसे छूटती ,
मालूम है इस खेल में , जूते भी पड़े है
२
हमको क्यों बूढा समझते आप है
ये हमारे साथ ना इन्साफ है
गहरा जल बहता सदा चुपचाप है
हौंसलों का नहीं होता माप है
ढोलकी में बची अब भी थाप है
जिंदादिल बंदा ये लल्लनटॉप है
जवानी है आप में तो क्या हुआ ,
अरे हम तो जवानो के बाप है
३
सहा हमने जो नहीं है ,कौनसा वो गम है बाकी
जमाने के ,अभी सहना ,और भी है सितम बाकी
यूंही बूढ़ा समझ कर के ,तिरस्कृत मत करो हमको,
अरे इस बुझते दिए में ,अभी भी दमखम है बाकी
घोटू
No comments:
Post a Comment