यूं ही उहापोह में
उलझते ही रहे हम आरोह और अवरोह में
जिंदगी हमने बिता दी,यूं ही उहा पोह में
दरअसल क्या चाहिये थी नहीं खुद को भी खबर
कहाँ जाना है हमें और कहाँ तक का है सफर
डगर भी अनजान थी और हम भटकते ही रहे ,
कभी इसकी टोह में और कभी उसकी टोह में
जिंदगी हमने बिता दी ,यूं ही उहापोह में
दोस्त कोई ,कोई दुश्मन ,लोग कितने ही मिले
दिया कोई ने सहारा ,किसी ने दी मुश्किलें
हाल कोई ने न पूछा ,नहीं जानी खैरियत,
उमर सारी ,हम तड़फते रहे जिनके मोह में
जिंदगी हमने बिता दी ,यूं ही उहापोह में
बेकरारी में दुखी हो, दिन गुजरते ही रहे
रोज हम जीते रहे और रोज ही मरते रहे
ऐसी स्थिरप्रज्ञ अब हालत हमारी होगयी ,
अब मिलन में सुख न मिलता,और गम न विछोह में
जिंदगी हमने बिता दे ,यूं ही उहापोह में
घोटू
No comments:
Post a Comment