चूना
१
दीवारों पर लग कर मैं दीवारें सजाता हूँ
लगता हूँ पान में तो होठों को रचाता हूँ
कोशिशें करता हूँ जो उनको निखारने की,
उनको ये शिकायत है ,मैं चूना लगाता हूँ
२
चूने की दीवारों पर ,जब चूना लगता है ,
तो उनकी रौनक फिर ,और भी निखरती है
रूप कातिलाना है ,सुन्दर और सुहाना है,
लगती है जालिम जब,सजती संवरती है
मोती सी झलकाती,दन्तलड़ी मुस्काती ,
देखने वालों पर,बिजलियाँ गिरती है
सोने सा अंग अंग,भर जाता नया रंग ,
जब थोड़ा अलसा वो ,अंगड़ाई भरती है
घोटू
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