Thursday, March 5, 2020

बढ़ती उम्र की पीड़ा

उम्र ज्यों ज्यों हो रही है तीव्रगामी
हो रहा मन ,कुटिल,लोभी और कामी
घट रहा अब ओज तन का ,दिन ब दिन है  
क्षरित तन, मन की न कर पाता  गुलामी

भले मन में हौंसला  ,तन खोखला है  
शांत रहता ,अब न आता जलजला है
लालसा तज ,बन न पाया, बुद्ध ये मन
क्रुद्ध खुद पर इसलिये ये हो चला है
 
चाहता है उडूं ,पर ये उड़ न पाता
फड़फड़ाता पंख ,लेकिन छटपटाता
याद करता  दिन सुहाने वो उड़न के ,
विचरता  था  गगन में ,गोते लगाता
 
याद कर बीते हुए वो मदभरे  दिन ,
शेष स्मृतियों  में रहे वो सुनहरे  दिन
लाख पुनःरावर्ती करना चाहता पर ,
लौट फिर आते नहीं  वो  रसभरे  दिन

मौन है मजबूर मन खुद को   मसोसे
भाग्य को या उमर को ,वो  किसे कोसें
भूख  पर तन ,ना चबा ,ना पचा पाता  ,
भले  थाली  सामने , व्यंजन परोसे

बड़ा ही मन को कचोटे  ,ये विवशता
जिंदगी में आ गयी है एकरसता
क्या पता था ,देखने ये दिन पड़ेगे ,
भाग्य पर मन कभी रोता कभी हँसता

दुखी हो मन ,बाल सर के नोचता है
राम में मन रमाने की सोचता है
जाय मिट बेचैनियां  और मिले शांति ,
रास्ता वह उस जगह का खोजता है

ह्रदय की अठखेलियां है रामनामी
लालसाये हुई अब  पूरणविरामी
पीत पड़ती जारही सारी चमक है ,
हो रहा है अब प्रभाकर क्षितिजगामी

अरे यह नियति  नियम ,दस्तूर है  
किया करता सबको जो मजबूर है
क्यों परेशां हो रहे हो व्यर्थ में ,
वो ही होगा रब को जो मंजूर है

मदनमोहन बहती 'घोटू '

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