प्रवासी मजदूर -आत्मकथ्य
आये थे शहर ,करने को गुजर ,
लेकिन अब हम पछताते है
ये चमक दमक, सारी रौनक ,
कुछ दिन तो बहुत सुहाते है
आफत मारे ,हम बेचारे ,
तकलीफ हजारों पाते है
अब कोरोना ,का ये रोना ,
घर बंद ,निकल ना पाते है
ये बिमारी ,मुश्किल भारी ,
कुछ भी तो कमा ना पाते है
खा गए बचत, टूटी हिम्मत ,
अब पेट नहीं भर पाते है
रेलें न बसें ,हम कहाँ फंसे ,
पैदल निकले ,दुःख पाते है
रोटी के लिए घर छोड़ा था ,
रोटी के लिए घर जाते है
मदन मोहन बाहेती 'घोटू '
आये थे शहर ,करने को गुजर ,
लेकिन अब हम पछताते है
ये चमक दमक, सारी रौनक ,
कुछ दिन तो बहुत सुहाते है
आफत मारे ,हम बेचारे ,
तकलीफ हजारों पाते है
अब कोरोना ,का ये रोना ,
घर बंद ,निकल ना पाते है
ये बिमारी ,मुश्किल भारी ,
कुछ भी तो कमा ना पाते है
खा गए बचत, टूटी हिम्मत ,
अब पेट नहीं भर पाते है
रेलें न बसें ,हम कहाँ फंसे ,
पैदल निकले ,दुःख पाते है
रोटी के लिए घर छोड़ा था ,
रोटी के लिए घर जाते है
मदन मोहन बाहेती 'घोटू '
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