जीने की ललक
जिस्म गया पक , पैर कब्र में रहे लटक है
फिर भी लंबा जिएं, मन में यही ललक है
तन के सारे अंग, ठीक से काम न करते
तरह-तरह की बीमारी से हम नित लड़ते
कभी दांत में दर्द ,कभी है मुंह में छाले
पर मन करता,सभी चीज का मजा उठा ले
खा लेते कुछ,पाचन तंत्र पचा ना पाता
सांस फूलती ,ज्यादा दूर चला ना जाता
लाख दवाई खाएंगे, टॉनिक पिएंगे
लेकिन मन में हसरत है, लंबा जिएंगे
हुस्न देख, आंखों में आती नयी चमक है
फिर भी लंबा जिएं, मन में यही ललक है
कोई अपंग अपाहिज है ,चल फिर ना सकता
फिर भी उसका मन लंबा जीने को करता
इस जीने के लिऐ न जाने क्या क्या होता
कोई चलाता रिक्शा, कोई बोझा ढोता
कोई अपना जिस्म बेचता ,जीने खातिर
कोई चोरी करता ,कोई बनता शातिर
इस जीने के चक्कर में कितने मरते हैं
जो जो पापी पेट कराता ,सब करते हैं
गांव-गांव में गली-गली में रहे भटक है
फिर भी लंबा जिएं,मन में यही ललक है
कोई वृद्ध है, नहीं पूछते बेटी बेटे
दिन भर तन्हा यूं ही रहते घर में बैठे
बड़े तिरस्कृत रहते ,होता किन्तु अचंभा
उनके मन में भी चाहत, वो जिए लंबा
बंधा हुआ मन है मोह माया के चक्कर में
उलझा ही रहता है बच्चों में और घर में
हैं बीमार अचेत,सांस वेंटीलेटर पर
फिर भी चाहें, बढ़ जाएं जीवन के कुछ पल
दुनिया में क्यों रहते सब के प्राण अटक है
फिर भी लम्बा जिएं मन में यही ललक है
मदन मोहन बाहेती घोटू
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