फिसलन
जब मैं जवान था तेज भरा ,
मस्ती में इठलाया करता
मुड़ जाती नजर हसीनों की ,
जब इधर-उधर जाया करता
कोई डोरे डाल फसा ना ले,
मेरी पत्नी जी डरती थी
जब भी मैं बाहर जाता था,
वह मेरे संग ही चलती थी
मुझ पर चौकीदारी करती,
कितनी ,कैसी, क्या बतलाऊं
चक्कर में किसी हसीना के ,
वह डरती , मैं न फिसल जाऊं
मन डगमग बहुत हुआ ,
जब भी कोई मौका आया
पर पत्नी के अनुशासन में ,
रह कर मैं फिसल नहीं पाया
कट गई जवानी ऐसे ही,
क्या याद करूं अगला पिछला
दिल डगमग डगमग बहुत किया ,
ना तब फिसला, ना अब फिसला
आ गया बुढ़ापा है लेकिन,
तन मेरा है डगमग डगमग
पत्नी रखती मुझको संभाल,
पल भर भी होती नहीं अलग
मैं जब भी कभी कहीं जाता ,
वह हाथ थाम कर चलती है
ठोकर खा फिसल नहीं जाऊं,
वो मुझे बचा कर रखती है
अब वृद्ध हुआ, मैं ना फिसला ,
बस यूं ही जिंदगी निकल गई
फिसलन से रहा सदा बच कर ,
पर उमर हाथ से फिसल गई
मदन मोहन बाहेती घोटू