Sunday, August 7, 2011

मै तो नीर भरी बदली हूँ

मै तो नीर भरी बदली हूँ
सचमुच मै कितनी पगली हूँ
मदद ताप की ले सूरज से
नीर चुराती मै सागर से
और छुपा अपने आँचल में
भटका करती इधर उधर मै
क्योंकि सिपाही नीलाम्बर के
मुझे  देखते चोरी  करते
और हवायें पीछे पड़ती
बिजली की तलवार कड़कती
और हवाओं के दबाब में
सभी चुराया हुआ माल मै
धरती पर बरसा देती हूँ
पाक साफ़ दामन करती हूँ
नीर चुराया मेरा सब पर
जब गिरता सूखी धरती पर
लोगों के चेहरे हर्षाते
नाले ,नदियाँ सब भर जाते
हरी भरी धरती  मुस्काती
खेतों में फसलें लहराती
मेरा मन हो जाता विव्हल
यदि यह है चोरी का प्रतिफल
चोरी करना  भी स्वीकार्य है
सचमुच ये तो पुण्य कार्य है
इसीलिये मै ना डरती हूँ
बार बार चोरी करती हूँ
ना बदलूंगी,ना बदली हूँ
मै तो नीर भरी  बदली हूँ

मदन मोहन बाहेती 'घोटू'

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