जी का जंजाल
इस जी का क्या ,जी तो क्या क्या सोचा करता है
जी जी करके , जीता जाता, जी जी मरता है
कभी चाहता वह ,परियों को,बाहों में ले लूं
कभी मचलता जी,गुलाब की,कलियों संग खेलू
कभी ललकता ,पंख लगा कर ,अम्बर में घूमू
कभी बावरा ,चाहा करता ,चन्दा को चूमू
पर क्या जी की ,हर एक इच्छा पूरी होती है
हर जी की ,कुछ ना कुछ तो ,मजबूरी होती है
हाथ निराशा ,जब लगती तो बहुत अखरता है
इस जी का क्या,जी तो क्या क्या ,सोचा करता है
इच्छाओ का क्या,इनका तो कोई अंत नहीं
जिसको संतुष्टी मिल जाए ,जी वो संत नहीं
एक इच्छा पूरी होती,दूजी जग जाती है
यह अपूर्णता ,चिंता बन ,पीछे लग जाती है
है प्रयास और लगन जरूरी ,इच्छा पाने को
और भाग्य भी आवश्यक है ,साथ निभाने को
इसी चक्र में मानव,जीवन जीता ,मरता है
इस जी का क्या,जी तो क्या क्या ,सोचा करता है
मदनमोहन बाहेती'घोटू'
No comments:
Post a Comment