Monday, January 31, 2011

संतानों से

          संतानों  से
याद करें जो तुमको हर पल
उनको भी देदो तुम कुछ पल
जिससे उनका दिल खिल जाए
थोड़ी सी खुशियाँ मिल जाए
उनके ढलते से जीवन को ,
मिले प्यार का थोडा संबल
उनको भी दे दो तुम कुछ पल
आज गर्व से जहाँ खड़े हो
इतने ऊँचे हुए बड़े हो
ये उनका पालन पोषण है
और उनकी ममता का आँचल
उनको भी दे दो तुम कुछ पल
जिनने तुम पर तन मन वारे
प्यार लुटाते जनक तुम्हारे
जिनके आशीर्वाद आज भी
बरस रहें है तुम पर अविरल
याद करे तुमको जो हर पल
उनको भी दे दो तुम कुछ पल

ओह मिश्र के ग्रेट पिरेमिड

ओह मिश्र के ग्रेट पिरेमिड
तुम वृहद्ध हो ,तुम विशाल हो
तुम मानव के द्वारा निर्मित एक कमाल हो
तुम महान हो , तुम बड़े हो
आसमान में गर्व से ,सर उठाये खड़े हो
आज की प्रगतिशील पीढ़ी की तरह
तुम जितने ऊपर जाते हो
घटते ही जाते हो
तुम भी संवेदनाओं से शून्य हो
तुम्हारा दिल भी पत्थर है
तुम दोनों में बस थोडा सा अंतर है
तुम्हारे अन्दर तुम्हारे निर्माताओं का
मृत शरीर सुरक्षित है
और इस पीड़ी के हृदयों में बसने को
उनके जनकों की आत्माएं तरस रही है
और उनका मृतप्राय शरीर
घर के किसी कोने में ,
पड़ा उपेक्षित है



Wednesday, January 26, 2011

माँ तुम ऐसी गयी ,गया सब ,खुशियों का संसार

माँ तुम ऐसी गयी ,गया सब ,खुशियों का संसार
तार   तार हो बिखर गया है ,ये सारा परिवार
जब तुम थी तो चुम्बक जैसी ,सभी खींचे आते थे
कितनी चहल पहल होती थी ,हंसते थे ,गाते थे
दीवाली की लक्ष्मी पूजा और होली के रंग
कोशिश होती इन मोको पर ,रहें सभी संग संग
साथ साथ मिल कर मानते थे ,सभी तीज त्योंहार
माँ ,तुम ऐसी गयी ,गया सब ,खुशियों का संसार
जब तुम थी तो ,ये घर ,घर था ,अब है तिनका तिनका
टूट गया तिनको तिनको में ,कुछ उनका ,कुछ इनका
छोटी मुन्नी ,बड़के भैया,मंझली ,छोटू ,नन्हा
अब तो कोई नहीं आता है ,सब है तनहा तनहा
एक डोर से बाँध रखा था ,तुमने ये घर बार
माँ,तुम ऐसी गयी ,गया सब खुशियों का संसार
भाई भाई के बीच खड़ी है ,नफरत की दीवारे
कोर्ट ,कचहरी,झगडे नोटिस,खिंची  हुई तलवारें
लुप्त हो गया ,भाईचारा,लालच के अंधड़ में
ऐसी सेंध लगाई स्वार्थ ने ,खुशियों के इस गढ़ में
माँ तुम रूठी ,टूट गया सब ,गठा हुआ संसार
तार तार हो कर के बिखरा ,ये सारा घर बार
संस्कार की देवी थी तुम ,ममता का आँचल थी
खान प्यार की ,माँ तुम आशीर्वादों का निर्झर थी
सबको राह दिखाती थी तुम ,सुख दुःख और मुश्किल में
तुम सबके दिल में रहती थी ,सभी तुम्हारे दिल में
हरा भरा परिवार वृक्ष था ,माँ तुम थी आधार
माँ, तुम ऐसी गयी ,गया सब ,खुशियों का संसार


आज प्रात की बेला में

आज प्रात  की बेला में
मैंने मुहं चूमा उषा का ,किरणों के संग खेला मै
मोती सी शबनम की बूंदे ,हरी घास पर लेती अल्हड
मस्त समीरण के झोंको से,नाच रही थी कलियाँ चंचल
पंछी नीद छोड़ निकले थे,ची ची ची ची चहक रहे थे
खुशबू का आँचल फहराते,फूल गुलाबी महक रहे थे
अभी उबासी लेकर भ्रमरों ने,बस अपनी आँखे खोली थी
तभी डाल पर फुदक फुदक कर ,कुहू कुहू कोयल बोली थी
नव प्रभात की, नवल शिशु सी, सोंधी सोंधी खुशबू आई
आँखे खोल जूही की कलियों ने छुप कर के ली अंगडाई
पुरवैया ने थपकी दी तो ,पारिजात ने पुष्प बिछाये
दूर क्षितिज से सूरज झाँका, वृक्षों पर किसलय मुस्काए
उषा के गालों पर लाली ,छायी प्रिय के मधुर मिलन की
फिर से शुरू हो गयी हलचल ,एक नए दिन की ,जीवन की
भाव विभोर हो गया लख कर ,रूप भोर का अलबेला ,मै
आज प्रात की इस बेला में




Tuesday, January 25, 2011

हो सके तो हमें दो गिलास शुद्ध पानी मुहैया कराओ

तुम्हारे वादे गुलाबजामुन की तरह है
जिनमे न गुलाब की खुशबू है
न जामुन का स्वाद
सिंथेटिक मावे के बने गुलाबजामुन
हमें अब रास नहीं आयेगे
गुल हु गया है जो मन ,
उसे  गुलाबजामुन कहाँ भायेगे
तुम्हारे आश्वासनों के सड़े हुए ,
मैदे के खमीर से बनी
वादों की कढ़ाई में तली हुई
और टूटे हुए सपनो की चासनी में डूबी हुई
ये टेढ़ी मेढ़ी जलेबियाँ
इतने सालों से खिलाते आ रहे हो
अब नहीं खा पायेगे
हमें डायबिटीज  हो गयी है
हमें खस्ता कचोडी खिलाने का वादा मत करो
हमारी हालत यूं ही खस्ता हो गयी  है
तुम्हारे भाषण,प्याज के छिलकों की तरह
हर बार परत दर परत खुलते है
पर स्वाद कम ,आंसू ज्यादा लातें है
अब हमें मत बर्गालाओ
कामनवेल्थ गेम में ,बहुत खेल खेल लिए
तुम्हारा तो पेट भर चुका है
हो सके तो हमें
दो गिलास शुद्ध पानी मुहैया कराओ
क्योंकि पेट तो अब पानी से ही भरना पड़ेगा




Sunday, January 23, 2011

हाँ हम रेल की पटरियां है

लोहे का तन ,कुंठित जीवन
जमीन से जड़ी हुई
दूर दूर पड़ी हुई
जो कभी न  मिल पायी
इसी दो सखियाँ है
हाँ ,हम रेल की पटरियां है
कितनो का ही बोझ उठाती
सबको मंजिल तक पहुंचाती
सुनसान जंगलों में
या कस्बों ,शहरों में
साथ साथ भटक रही
पर हमको पता नहीं
हमारी मंजिल कहाँ है
हाँ ,हम रेल की पटरियां है
साथ साथ रह कर भी,
क्या है मजबूरियां
बनी ही रहती है ,
आपस में दूरियां
जिनकी सोच आपस में ,
कभी नहीं मिल पाती
हम ऐसी दो  पीढियां है
हाँ हम रेल की पटरियां है



हम रेल की पटरियां है

लोहे का तन ,कुंठित जीवन
जमीन से जड़ी हुई
दूर दूर पड़ी हुई
जो कभी न  मिल पायी
इसी दो सखियाँ है
हाँ ,हम रेल की पटरियां है
कितनो का ही बोझ उठाती
सबको मंजिल तक पहुंचाती
सुनसान जंगलों में
या कस्बों ,शहरों में
साथ साथ भटक रही
पर हमको पता नहीं
हमारी मंजिल कहाँ है
हाँ ,हम रेल की पटरियां है
साथ साथ रह कर भी,
क्या है मजबूरियां
बनी ही रहती है ,
आपस में दूरियां
जिनकी सोच आपस में ,
कभी नहीं मिल पाती
हम ऐसी दो  पीढियां है
हाँ हम रेल की पटरियां है



Tuesday, January 18, 2011

तू अपनी माँ को भूल गया

         तू अपनी माँ को भूल गया
जिसने नौ महीने तुझे कोख में,किया अंकुरित ,जनम दिया
छाती के रस से सींच सींच ,पला पोसा और बड़ा किया
तूने सीखा घुटनों चलना,फिर खड़ा हुआ ,मुहं खोला था
माँ हुई ख़ुशी से गदगद थी,जब तू माँ माँ माँ बोला था
तू बिस्तर गीला करता माँ ,गोदी में तुझे उठाती थी
सूखे बिस्तर से तुझे उठा ,खुद गीले में सो जाती थी
दिन दूना रात चोगुना तू, बढ जाए मन्नत करती थी
पढ़ लिख कर बने बड़ा ,सुखमय जीवन हो,चाहत करती थी
तेरे प्रति माँ का अमित स्नेह,अब भी कायम है ,सच्चा है
तू कितना भी बन जाए बड़ा ,माँ को तो लगता बच्चा है
तेरी तारीफ़ करते करते ,जिसकी जुबान ना थकती है
धुंधली धुंधली सी आँखों से,वो राह तुम्हारी तकती है
बस एक बार आ जा मिलने,माँ का मन तुझे बुलाता है
गिर गिर चलना,बढना सीखा ,वो आँगन तुझे बुलाता है
वो तुझसे नहीं मांगती कुछ,बस थोडा प्यार चाहती है
बीमार पड़ी है एक बार ,तेरा दीदार चाहती है
उसका अब तक का स्नेह त्याग,क्या सचमुच यूं ही फिजूल गया
तू अपनी माँ को भूल गया

Monday, January 17, 2011

तेरी चिट्ठी के दो पन्ने

देते है सब की याद दिला
तेरी चिट्ठी के दो पन्ने
मन को छू छू कर जाते है
तेरी चिट्ठी के दो पन्ने
जब कंप्यूटर के इस युग में
ई मेल नहीं ,ख़त मिलता है
मोती से अक्षर से सज कर
पैगामे महोब्बत मिलता है
ख़त के हर अक्षर में खुशबू
आती घर ,माटी, आँगन की
तुम्हारे प्यार महोब्बत की
चाहत की और अपनेपन की
उस दिन तुम्हारी चिट्ठी में
तो स्वाद गजब का आया था
तुमने मक्का की रोटी और
सरसों का साग बनाया था
एक दिन गोबर की खुशबू थी
गाय का दूध दुहा होगा
थी महक एक दिन चुम्बन की
ख़त होटों से छुवा होगा
या खुशबू पुए पकोड़ों की
और रस की खीर महकती है
मन बेकल सा हो जाता है
सब यादें आने लगती है
कल की चिट्ठी के कुछ अक्षर
थोड़े धुंधले धुंधले से थे
ख़त लिखते लिखते आँखों से
शायद कुछ आंसू टपके थे
ख़त छोड़ अधूरा भागी तं
अम्मा ने बुला लिया होगा
या फिर शायद बाबूजी को
खांसी का दौर उठा होगा
मै हाथ फेरता चिट्ठी पर ,
आभास तुम्हारा होता है
खुशबू आती तेरे तन की
और साथ तुम्हारा होता है
सारे जज्बात उमड़ कर के
बस चिट्ठी में आ जाते है
मै बार बार चिट्ठी पढता 
आँखों में आंसू आते है
देते है मेरी नींद उड़ा
तेरी चिट्ठी के दो पन्ने
मन को छू छू कर जाते है
तेरी चिट्ठी के दो पन्ने


Sunday, January 16, 2011

हनीमून वाला पागलपन बुढ़ापे का दीवानापन बोलो इन में क्या अंतर है?

हनीमून वाला पागलपन
बुढ़ापे का दीवानापन
बोलो इन में क्या अंतर है?
एक अनजाना ,एक अनजानी
लिखने लगते नयी कहानी
कुछ उत्सुकता ,कुछ आकर्षण
ढूँढा करते है अपनापन
एक दूजे के तन में ,मन में
या अनोखे पागलपन में
थोड़े सहमे ,कुछ घबराये
आकुल व्याकुल पर शर्माए
प्रेम पुष्प करते है अर्पित
एक दूजे को पूर्ण समर्पित
हनीमून तो शुरुवात है
चालू करना नया सफ़र है
हनीमून वाला पागलपन
बुढ़ापे का दीवाना पन
देखो इनमे क्या अंतर है
और बुढ़ापे के दो साथी
एक दिया है और एक बाती
लम्बा सफ़र काट, सुस्ताते
करते याद पुरानी बातें
क्या क्या खोया ,क्या क्या पाया
किसने अपनाया, ठुकराया
एक दूजे पर पूर्ण समर्पण
वही प्रेम और दीवानापन
हैं अशक्त ,तन में थकान पर
एक दूजे की बांह थाम कर
सारा जीवन संग संग काटा
अब भी आपस में निर्भर है
हनीमून वाला पागलपन
बुढ़ापे का दीवानापन
देखो इन में क्या अंतर है

Saturday, January 15, 2011

इंतजार है बस उस दिन का

भारत सोने की चिड़िया था
प्रगति में सबसे अगुवा था
हरा भरा खुशहाल देश था
है इतिहास पुराने दिन का
कुछ तो धन ले गए विदेशी
भ्रष्टाचारी नेता देशी
सबने मिल कर इतना लूटा
बचा नहीं कोई भी तिनका
इसे निकले सत्ताधारी
काला धन करतूते काली
बेईमानी, घूस ,कमीशन
खाकर पेट भरा न जिनका
आओ इसे कदम उठाये
कोशिश कर के वापस लाये
स्विस बैंकों में जमा किया धन
उनका था या शायद इनका
कुछ अपनों के राज़ खुलेगे
मैले कपडे मगर धुलेगे
फिर से उजियाला फैलेगा
वो पायेगे हक़ है जिनका
महगाई की आग थमेगी
साँस चैन की जनता लेगी
जन गन मन की शान बढेगी
इंतजार है बस उस दिन का

दहक बाकी है

छलकते जाम पर इतराए  तू क्यों साकी है
बुझे  हुए इन  शोलो  में दहक बाकी है
सर पर है चाँद या की चांदनी तू इन पे न जा
तेरे संग चाँद पर जाने की हवस बाकी है
बहुत बरसें है ये बादल तो कई बरसों तक
फिर से आया है सावन की बरस बाकी है
दूर से आँख चुरा लेती है ,आँखे तो मिला
देख इन बुझते चिरागों में चमक बाकी है
हम तो थे फूल गुलाबों के बहुत ही महके
सूखने लग गए है तो भी महक बाकी है
भले ही शाम है और ढलने लगा है सूरज
छाई है दूर तक लाली कि चमक बाकी है

Friday, January 14, 2011

रेवड़ी

        रेवड़ी
मेरे दिल में मिठास है
कुछ खुशबू खास है
कड़क कुरमुरी हूँ
स्वाद से भरी हूँ
मुझसे लिपटे है जितने तिल
वो है मेरे चाहने वालो के दिल
सोने की अशर्फी हूँ
मोतियों से जड़ी हूँ
मै रेवड़ी हूँ
सर्दी की उष्मा हूँ
प्यार का उपहार हूँ
दिलों से लिपटा हुआ ,
मिलन का त्यौहार हूँ
जो खाता खिलाता है
बस ये ही चाहता है
मीठा खाओ ,मीठा बोलो
सब के मन में अमृत घोलो
महाराष्ट्र का तिल  गुड हूँ
यूपी की खिचड़ी हूँ
आसाम का बिहू
केरल का पोंगल और
पंजाब की लोहड़ी हूँ
मै रेवड़ी हूँ

Thursday, January 13, 2011

ऐसे हम फिसले गाल पर ,कंगाल हो गए

कमसिन था लचकता बदन ,मतवाली चाल थी
वो ही कदम तुम्हारे अब भूचाल हो गए
उड़ उड़ के उड़ा देते थे जो होंश सभी के
लहराते जाल जुल्फ के ,जंजाल हो गए
थे लाल लरजते हुए लब,गाल रेशमी
ऐसे हम फिसले गाल पर ,कंगाल हो गए
हुस्नो अदा और रूप से तुम मालामाल थे
इस माल के चक्कर में हम ,हम्माल हो गए

Wednesday, January 12, 2011

असली इश्क बुढ़ापे में है

तुम जवान थी ,मै जवान था
गरम खून में तब उफान था
भरा जोश था ,नहीं होश था
हम तुम दोनों में योवन था
फिर बच्चो की जिम्मेदारी
और नोकरी की लाचारी
काम,कामना और कमाई
का जुनून और पागलपन था
और अब हम हो गए रिटायर
बच्चे खुश अपने अपने घर
बस हम और तुम दो ही बचे है
छूट गया सब जो बंधन था
फुर्सत है चिंता न फिकर है
मौज मजे की यही उमर है
असली इश्क  बुढ़ापे में है
बाकी सब दीवानापन था

Sunday, January 9, 2011

तुम्हारे खर्राटे सुन कर

तुम्हारे खर्राटे सुन कर
सब भाग गए घर के मच्छर
लेकिन मै अब भी बिस्तर में
सोया हूँ कर बंद कान सखे
अब करने दो आराम सखे
ये सिर्फ आज की बात नहीं
ये रोज रोज का चक्कर है
ये तो बस हम ही जानते है
ये पीड़ा महा भयंकर है
आदत पड़ गयी हमें इसकी
अब इस बिन नीद न आती है
थोड़ी सी अगर शांति हो
तो नीद उचट बस जाती है
ये खर्राटे है नहीं सिर्फ
ये सात स्वरों का संगम है
ये गीत मधुर है तुम्हारा
ये मधुर तुम्हारी सरगम है
ना जरुरत कछुवा बत्ती की
ना हिट की कोई जरुरत है
तुम नींद चैन की सोती हो
आ जाती सब पर आफत है
ये नाक तुम्हारी सुन्दर सी
जब गाने लगती गान सखे
अब करने दो आराम सखे

Saturday, January 8, 2011

पहले तो ये बात नहीं थी

पहले तो ये बात नहीं थी
जब दिल से दिल नहीं मिले हो ,
इसी कोई रात नहीं थी
तुममे हममे एक बात थी
प्यार प्यार ही था बस केवल
एक दूसरे की यादे थी
इक दूजे के सपने हर पल
याद नहीं एसा कोई पल
जब तुम मेरे साथ नहीं थी
पहले तो ये बात नहीं थी
पहले जब झगडा होता था
उसमे मीठापन होता था
तब तनाव का अंत अधिकतर
मौन समर्पण ही होता था
एक दूसरे की बांहों बिन
कटती कोई रात नहीं थी
पहले तो ये बात नहीं थी
अब तो ऐसी उम्र आ गयी
तुम अपने में मै अपने मे
मै टी वी में पिक्चर देखू
तुम उलझी माला जपने में
अलग अलग है राह हमारी
अपनी तो ये जात नहीं थी
पहले तो ये बात नहीं थी









झगडे तो अब भी होते है

झगडे तो अब भी होते है
छोटी छोटी सी बातों में
अक्सर जब अनबन होती है
एक ही बिस्तर पर दूर दूर
हम मुहं को फेरे सोते है
झगडे तो अब भी होते है
अब भी जब सजते धजते है
तो कितने सुन्दर लगते है
लेकिन उनकी तारीफ़ न की
हो खफा ,सिसकते रोते है
जब घर वालो से नज़र बचा
हम रोमांटिक हो जाते है
वो झल्लाते है ,शरमा कर
फिर बाहुपाश में होते है
हम तो सोंदर्य उपासक है
कोई सुन्दर सी महिला को
देखा और जो तारीफ़ करदी
वो जल कर पलक भिजोते है
है शुगर हमारी बढ़ी हुई
लेकिन है शोक मिठाई का
हम चुपके चुपके खाते है
तो खफा बहुत वो होते है
उनके मैके से कभी कभी
जब फोन कोई आजाता है
टी वी का  वोल्यूम कम न किया
वो अपना आपा खोते है
जब उनके खर्राटे सुन कर
खुल जाती नींद हमारी है
हम उनकी नाक दबा देते
चुपचाप  चैन से सोते है
जब हमको गुस्सा आता है
और ब्लड प्रेशर बढ जाता है
अक्सर हमको या फिर उनको
करने पड़ते समझोते है
झगडे तो अब भी होते है

Thursday, January 6, 2011

अर्धाक्षर

अर्धाक्षर
मुझ बिन कोई पूर्ण नहीं है ,जी हाँ मै आधा अक्षर हूँ
                १
पूर्व दिशा में ,मै पश्चिम में,उत्तर से दक्षिण तक व्यापक
स्वर्ग नर्क में,चन्द्र सूर्य में, मै पृथ्वी से अन्तरिक्ष तक
मंगल,शुक्र ,बृहस्पति  ग्रह में ब्रह्माण्ड में, मै अम्बर में
मै समुद्र में, मै पर्वत पर ,मै त्रेता में, मै द्वापर में
धर्म,कर्म, संगीत, नृत्य में,और मृदंग का मै ही स्वर हूँ
, जी हाँ मै आधा अक्षर हूँ
मै त्रिदेव ब्रह्मा विष्णु में,शिवशंकर के मन में रहता
मै लक्ष्मी, शक्ति, दुर्गा में,सरस्वती के स्वर में बहता
चार धाम,बद्री, रामेश्वर,जगन्नाथ जी ,पुरी द्वारका
महानगर, मुंबई,चेन्नई,इन्द्रप्रस्थ दिल्ली या कोलकत्ता
महानगर ये मेरे कारण,क्योंकि मै इनके अन्दर हूँ
   जी हाँ मै आधा अक्षर हूँ
मै मस्तक में ,कर्ण चक्षु मेंओष्ट और जिव्हा में मै  ही
हस्त ,उंगलियाँ,जांघ,पिंडलियाँ,मांस और मज्जा में मै ही
मै वर्षा में,मै सर्दी में,मै गर्मी में,मै बसंत में
जन्म ,मृत्यु में विद्यमान में,मै ही आरम्भ और अंत में
मै मानव की श्वास श्वास में ,और मै ही अस्थि पंजर हूँ
    जी हाँ मै आधा अक्षर हूँ
ब्रह्मचर्य में,मै गृहस्थ में,वानप्रस्थ में, मै सन्यासी
ब्रह्मण,क्षत्रिय,वैश्य,क्षुद्र ,इन चार वर्ण का मै हूँ वासी
मै गंगा में,कालिंदी में ,सिन्धु,नर्मदा,क्षिप्रा, चम्बल
मै संगम में,मै प्रयाग में ,मै हूँ तीर्थराज में पुष्कर
हिंदी, उर्दू ,संस्कृत ,इंग्लिश ,हर भाषा में बहुत मुखर हूँ
      जी हाँ मै आधा अक्षर हूँ
कृष्णचन्द्र में बसा हुआ मै, मुझे बांसुरी ने है बांधा
क्योंकि मै मोजूद नहीं था ,प्यार रहा राधा का आधा
कृष्णचन्द्र की आठों रानी,रुकमनी, कालिंदी ,सत्यभामा
जामवंती और मित्रवंदा थी ,सत्या,भद्रा और लक्ष्मणा
इन सबके पटरानी बनने का,कारण बस में ही भर हूँ
       जी हाँ मै आधा अक्षर हूँ
हिन्दू ,मुस्लिम, बौद्ध,क्रिश्चियन ,सिख्ख सभी धर्मो के अन्दर
इश्वर, बुद्ध और क्राइस्ट में,मै अल्लाह में और पैगम्बर
विश्व सुंदरी बन कर चमकी,बजा रूप का अपने डंका
सुस्मिता ,एश्वर्य राय और युक्ता,दत्ता और प्रियंका
 मै इन सब में विद्यमान था ,ये सुन्दर मै भी सुन्दर हूँ
       जी हाँ मै आधा अक्षर हूँ

हमने छोड़ दी पीनी शराब

छलकते जाम से है लब तुम्हारे अंगूरी
नशीली है तुम्हारे नैन की चितवन चंचल
उम्र भर पीते रहो पर कभी न खाली हो
तुम्हारा जिस्म है पूरी शराब की बोतल
प्यार से देख भी लेती हो नशा छाता है
तेरे हाथों की छुवन काफी है नशे के लिए
तुम्हारी बाते नशीली है इस कदर जालिम
हमने छोड़ दी पीनी शराब नशे के लिए
a

Monday, January 3, 2011

ऐ मनमोहन अब तो जागो

शीला जवान हुई
मुन्नी बदनाम हुई
सारी व्यवस्थाये,
अब बेलगाम हुई
ऐ मनमोहन अब तो जागो
तू जी स्कैम हुआ
कामनवेल्थ गेम हुआ
कितना    घोटाला हुआ
सबका मुहं काला हुआ
ऐ मनमोहन अब तो जागो
मंहगाई सर पे चढ़े
चीजो के दाम बढे
प्याज ने आंसू लाये
आदमी क्या खाए
ऐ मनमोहन अब तो जागो
ऊँची दूकान तुम्हारी
पर फीकी चीजे सारी
नित नए कांड होते
तुम खूँटी तान सोते
ऐ मनमोहन अब तो जागो

Sunday, January 2, 2011

देखो ये घर टूट न जाये

देखो ये घर टूट न जाये
अपने तुम से रूठ न जाए
क्योकि अगर ये घर टूटेगा
अपनों का ही दिल टूटेगा
धीरे धीरे ,रिसते रिसते
पिघल जायेगे सारे रिश्ते
मुस्काती ,खिलती बगिया की
खुशबू कोई लूट न जाए
देखो ये घर टूट न जाए
पीढ़ी में अंतर होता है
ये समझो तो समझोता है
अगर चाहते बचना गम से
तो रहना होगा संयम से
पनघट पर जाने से पहले,
खुशियों का घट फूट न जाए
देखो ये घर टूट न जाए